बन्द है
हमारी पलकों
में
खाका तुम्हारे
अधर का,
आँख में नदी के
जैसे सपना सागर
का ।
बून्द-बून्द
लहर दर लहर
तुम्हे सोख्नना
चाहता हूँ ।
धार बन कर बहो
ना,
किनारा मै होना
चाह्ता हूँ ।
कसम से,
गूँथा हुआ हर
पल
रक्त बन कर नसों
में
पैदा करता हलचल,
फिर वही नन्हा
सा पल
बनता किस्सा
मेरे सपन का,
" आग के सिवानो
में
तिनका
दर तिनका
घोसला
बनाना,
फिर उसमे
रेशा-रेशा
बन पूरा
का पूरा
खो जाना
।"
मेरे इस सपन में
आकर कुछ कहो ना,
तुम्हरा अब मै
होना चाहता हूँ
।
-विश्वदीपक
पाल