स्वप्न मे भावनां के शिखर चढ़ गया,

मुझको ऎसा लगा मै बहुत बढ़ गया |

चक्ष खुलने पे देखा जहाँ का तहाँ,

व्यर्थ कल्पित महाकाव्य मैं पढ़ गया ||

        रंग भावनाओं में स्वप्न भरते रहें,

        हम हमेशा यूँ हीं, कुछ करते रहें,

        राह कोई मिले बस चलते रहें |

व्यर्थ कल्पित नही जो महाकाव्य है,

प्रेरणाओं की जिसमें भरी आग है,

प्रणेंता है जो, जो नटराज है ,

विष हलाहल भी है, जो कविराज है,

पथ वही है जो इसनें बनाये,

जहाँ, हम खड़े आज हैं |

     स्ंशय नहीं स्वप्न एक अक्स है,

           महकाव्य का ये प्रथम पर्व है |

     प्रतिबिम्बित अगर है ये पूरा हुआ,

     नवजीवन का तेरा अभ्युदय है ||

अचेतन ही ये तेरा चेतन बनें,

अभिज्ञान (तेरा) महाकाव्य बनकर चले |

ना करना संताप तू फ़िर ये कभी,

कि व्यर्थ ही महाकाव्य मैनें पढ़े |                                                                            प्रवीर नीरज