राह गुज़रते एक शाम
यू ही हो गया मई रूबरू
ज़िंदगी से।
यादों के शहर के बीच मे
आई नज़र वो मुझे
एक चौराहे पे।
मैने देखा, पहचानने की कोशिश की!
लगा की जानता हूँ मै इसे, शायद पहचानता हूँ मै इसे।
अपनी ही उलझनों में उलझा उसे पहचान ना पाया,
जब मै चौराहे के पार पहुँचा
ऐसा लगा किसी ने आवाज़ दी है मुझे।
मुड़ के देखा मैने
वो वही थी
हां वही थी वो। ज़िंदगी!
वो इधर ही आ रही थी
देख मुझे बड़ी खुश थी वो शायद
या शायद हैरान!
इससे पहले की मै हिसाब लगा भी पाता
पूछ बैठी वो
पहचाना मुझे!
था ये छोटा सा सवाल
पर जवाब ढूँढना तो जैसे
पहाड़ लग रहा था
सोच रहा था की कौन है ये!
तभी उसने दोस्ताना अंदाज़ मे
ताने मरते हुए कहा,
भूल गये अपनी बचपन की दोस्त को?
मै ज़िंदगी!
मै हैरान उससे पूछा
इतने सालों बाद यहाँ कैसे?
वो बोली बस जब से बड़ी हुई खो सी गयी थी,
गुम्सुम सी थोडा अकेली पड़ गयी थी।
लोगो की उम्मीदों पे खरा उतरने की जगतोजहत ने उसका रंग फीका सा कर दिया था।
मैने उसे गौर से देखा
वो कुछ रूखी सी कुछ मुरझाई सी लगी
जैसे कुछ छुपा रखा हो अंदर और बताना ना चाहती हो किसी को।
मैने उसे थामा
रोक के उसे आँखो मे झाँक के पूछा
ये क्या हाल बना रखा है अपना?
बचपन मे इतनी प्यारी लगने वाली ज़िंदगी
यूँ जवानी मे क्यूँ थोड़ा मुरझाई सी है?
क्या हुआ है आख़िर ऐसा की
उसकी आँखे भीड़ मे किसी को ढूंडती सी है?
वो सिसक पड़ी
शायद कोई तार सा टूट गया था जैसे
या कोई ग़म उभर आया था आँखो मे।
भारी आँखो से बस उसने इतना ही कहा
दोस्त यही फ़र्क होता है बचपन और जवानी मे!
फिर वो दोबारा मिलने जा वादा कर के चली गयी
जैसा उसने बचपन मे किया था एक बार
और मै,
मै कुछ भी ना कर पाया उसकी मदद के लिए।
शायद ज़िंदगी का यही तरीका है
वो चलती है अपने हिसाब से,
जीती है अपने हिसाब से।
कोई दूसरा कितना भी चाह ले
कितना भी चाहे उसे बदलने को
वो करती वही है जो उसे मंजूर होता है।
Written By:
Punit Singh(MTech 1st Year)
PIS2015001
IIIT Allahabad
adminAbhivkyakti
राह गुज़रते एक शाम यू ही हो गया मई रूबरू ज़िंदगी से। यादों के शहर के बीच मे आई नज़र वो मुझे एक चौराहे पे। मैने देखा, पहचानने की कोशिश की! लगा की जानता हूँ मै इसे, शायद पहचानता हूँ मै इसे। अपनी ही उलझनों में उलझा उसे पहचान ना पाया, जब मै चौराहे के पार पहुँचा ऐसा लगा...