मैं अकेला रह गया
ख्वाब, चाहत, ख्वाहिसे, सब छीन के तुम ले गए
मैं यहाँ बाकि अकेला रह गया
शाम तक खेली थी खुशियाँ जिस मकां की ओट में
रात होते ही वहा, गहरा अधेरा रह गया
कहकसा भी अब तरसती चाँद को
अब गगन में बादलों का बस बसेरा रह गया
जिंदगी की ये अमावस और भी लम्बी हुई
जब से अपने दरमियाँ का फासला चौड़ा हुआ
रूह भी अब तो रिहाई मांगती है
यूँ सिसकने का की अब ये, मामला लम्बा हुआ
“पल दो पल का साथ था, ये सोच कर उसे भूल जा
अब फकत ये मान ले, जो भी हुआ अच्छा हुआ “
Avinash Kumar Singh
avinashkumarsingh1986@gmail.com