कई दर्द …
कत्ल करने का तजुर्बा तो यार का देखो ….
मेरा कातिल भी है और रहनुबा भी बनता है……
आग लगती है भूके गरीब के घर में…
अमीरो के यहाँ जो खाक-ए-धुआं बनता है….
माँ के हाथो के परांठो में अजब स्वाद जो था….
आचार आम का अब वैसा कहा बनता है….
एक मै ही नहीं सारा जमाना पागल है…
उसकी आँखों का जिसका ख्वाब दिल में पलता है….
छिपाए थे जो कंचे जीत कर के धरती में…
कहा बचपन का वो जहान ढूंढे मिलता है….
एक सेवक जो लेता है कसम रक्षा की….
भरे बाजार वाही काल-ए-अमन बनता है…..
मर गया एक पिता अपने ही बेटे के घर में….
बहू का जिसकी अब अधिकार घर में चलता है..
वही रiस्ते है वही गाव वही पगडण्डी …
मगर अब सर्दियों में अलाव कहा जलता है…
इस कदर भूल कर वो याद नहीं आएगा….
ज़हन में बस यही सवाल अब भी चलता है…..
बृजेश अवस्थी
https://bcognizance.iiita.ac.in/archive/nov-15/?p=51AbhivkyaktiBrijesh Kumar Awasthi
IMP2014002